ऋतुराज बसन्त

0
612

हरियर धरती के दगदग पीयर रंग में रंगेवाला, ठूँठ फेंड़ में पचखी फेकावेवाला, सकल चराचर में नया जोस खरोस भर देबेवाला , सन्त, अनंत आ पर्यंत में प्रीत के रीत के समावेश करा देबेवाला ” ऋतुराज बसंत ” से हथजोरी बा कि अबकी बेरी हमरो गाँव जवार में आवे के कृपा करीं। कश्मीर के शालीमार निशात बाग , कुल्लु मनाली के सुग्घर घाटी, बंबे के जुहू पार्ले , टाटा के जुबली पार्क, कोलकाता के विक्टोरिया पार्क , टाटा अंबानी के वाटिका अउ राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डेन में तऽ रउआ हर साल आवत बानी, आ , आके जूली, बेबो, लवली, डाॅली के बसंत के सरधा पूरा के चल जातबानी , बाकि ना जाने काहें रउआ गजाधर के परिया में, पचरतनी के आँगन में, गुलबिया के कियारी में, सोनपतिया के खँड़्ही में अउ महुआ के बगानी में आइल छोड़ देले बानी।

हे मदनपुत्र बसंत ! हमनी गाँव गवई के ठेंठ मनईन के राउर दरस परस कइला ना जाने कतने बरिस हो गइल बा । लरिकाईं में बाबा दादा से सुनले रहीं कि रउआ आगमन से गतर गतर पीयरा जाला, गाँछि हरियरा जाला, बगइचा गमगमा जाला । बाकि लागत बा कि रउआ हमनी सन के एकदमे बिसार दिहनी। हे बसंत ! कोइलर के कुक आ पपीहा के पीउ पीउ सूने खातिर हमनी सन तरसत बानी, बाकिर बुझात बाकि रउओ सहर के हावा लाग गइल बा। का, जीन्स, टाॅप्स, सूट , टाई, लाॅन, स्वीमिंग पूल , एसी, अउ थियेटर के फेरा में परल बानी? बुझात बा कि रउओ पछेआ हावा लागल बा, ना तऽ रउआ गाँव के बगइचा में, अमराई में, महुआनी में, सिवान में, बधारी में आइल काहे छोड़ दिहनी।

हे मधुऋतु ! आईं, रउआ खातिर गरीब, कंगाल तसरत बारन, घुरहू रोअत बारन, बुधनी फेकरत बिया, कामिनी हहरत बाड़ी।

पाला कइके अंग के ,गइलनि ऋतु हेमंत।
गेह न अइलनि कंतजी,आइल ऋतु बसंत।

कोइल अउर पपीहरा, लउके नाहि बगान।
भीतर में हहरत हिया,छछनत मोर परान।

अब त कवि लोग, रउरा प लिखतो नइखन। एगो जमाना रहे रीतकाल के, सृंगार रस के जब कालीदास, पद्माकर, अइसन कतने कवि राउर आगमन, विराम अउ प्रस्थान प आपन कलम चलावसु। असली में बसंत प लिखके , कविगन अब आपन मुँहमराई करावल नइखन चाहत। अब तऽ, अतना ना विसय बस्तु , हो गइल बा , सभे ओहि में अझुराइल बा। लूट , अपहरण, राजनीति, बेइमानी, सैतानी , छेड़खानी प चिन्तन मनन लेखन से समय बाचो तब नु, रउआ बदे सोचाई।

हे रतिनंदन ! आईं हमरा गमला के कैक्टस राउर प्रतीक्षा करत बा।
शेष भेटइला पर।

अमरेन्द्र कुमार सिंह
आरा