गजल

0
651

आजकल दिन बेरुखा बा धूप बोझिल अनमनी।
साँस के आवारगी में चिंतना के रहजनी।

पेड़ के छाँही सकोचल धूँध अइसन बढ़ रहल।
आँखि के पुतरी प चिनगी ओठ पर बा चुनचुनी।

जे जहाँ अफलातुने बा ना जवो भर कम केहू
झूर धइ चलले तलासत बेअरथ ठानाठुनी।

साफ कपड़ा मन कदोरा छंदफंदा अनगिनित।
साध के चोला लपेटे चोर के गोपीचनी।

अर्थजुग बा सोच तक बाजार के कब्जा भइल,
झूठ के आलेख पर ढारल सचाई के पनी।

ऐन गरनी के मुहाने ध्यान में बक ठाढ़ बा।
मूढ़ फरहा के कहे के ‘जनि उछर ओने दनी’।

बात तऽ बहुते रहे कहलो जरूरी बा मगर।
के अनेरे मोल लेवे बानरन से अनबनी।

✍️ दिनेश पाण्डेय,
पटना।