बदलत परम्परा

0
616

#बदलत परम्परा#

ए जमुना ? जमुना…. कहाँ बाड़े रे बचवा ?

ई त बड़की माई के आवाज ह । आव बड़की माई आ जो… गोड़ धरतानी ए बड़की माई ।

अरे ! छोटकू तू कब अइलsह बचवा ? बाड़ न ठीक ठाक? दुल्हिन आ बाल बच्चा के ना ले अइल हs ?

बड़की माई! सभे अपना पढ़ाई लिखाई आ काम धन्धा में बाझल बा । अम्मा के तबियत खराब के समाचार मिलल ह, देखे आ गइनीं हँ ।

बड़ा नीमन कइल ह, ए बचवा । भगवान जीव जांगर बनवले राखस… बड़की माई कहलस ।

जीजी साहब! गोड़ धरतानी…. अम्मा कहलस।

चल न परामपत घरे। सुनली हँ, उनकर छोटकी लइकिया के तलाक हो गइल बा, आइल बिया
। चल मिलि आवे के ।

रुकीं….. चलतानीं… कहि के अम्मा हाथ के काम ओरियावे चलि गइल ।

बड़की माई तोहन क त अस्सी बरिस के उमिर भइल, पुरनिया भइली स, अब के लोग नावा बा हमनीं के त केहरो के नइखीं जा। ना पुरनका रीति रिवाज कुल्हिये छुटता, ना नवका कुल्हिये मन भावता । ना एनिए के ना ओनिए के ।

उफर परो आजुकाल के रीति रिवाज। हमनीं के एगो समय रहे । मेहरारून के दुनियाँ नइहर ससुरा ले बस फइलल रहे । नइहरो पग बहुरे में कई कई बरिस बीत जात रहे । कार परोजन परले पर बेटी बहिन बोलावल जात रहली। ना त मन के पत्थर कइके ससुरे में रहे के परत रहे । भाई -बाप, चाचा- पीतिया से तीज- खिचड़ी भा नेवता- हँकारी के रहता में भेंट हो जात रहे ।
ई रिवाज त ठीक नाहिंए रहे, ए बड़की माई । लइकियो के अंदर एगो जीव बा, भावना बा, पियार -दुलार बा अपना नइहर ख़ातिर । ससुरइतिन होखते ऊ खून के रिश्ता खतम थोरे हो जाला?

ई कुल पुरान बात हो गइली सँ बचवा । अब त एक गोड़ ससुरा रहता त एक गोड़ नइहर । ससुरा अब बाँचले कहाँ बा कि एक गोड़ रही । ससुरा त ऊ होला जहाँ सास ससुर के राज रहेला । अब कहाँ कवनो लइका घरे रहता? अपना नोकरी भा रोजी रोजगार के चलते ऊ बहरा रहता। एही चलते बियाह आ ककन छुटते लोग बाहर के राह ध लेता । शहर में उनकर ऊ आपन घर रहता। ना सास- ननद आ ना त देवर- भसुर- जेठान। एकदम छुट्टा छड़गा । केहू टोके-टाके वाला ओहिजो त बा ना ।

समय के अभाव बा ए बड़की माई, नोकरी प जाए के जल्दबाजी के कारण सास के अपनी नवकी दुलहिन के सिखावे के मोका कहाँ भेंटाता कि ऊ ऊँच- नीच समझावस । इहे आजु के समय के मांग बा । एह हवा -बेयार के नतीजा का होता ? आज के पतोह, सास के घर में नइखे रहत, अपना घर मे रहतिया । कुछ पतोह त नोकरी क के अपना पैर पर भी खाड़ बिया । नइहर के लोग के सोचे के नइखे परत बेटी के घरे आवे में । एही मजमा के बीच रहला के कारण ससुरा के इयादो नइखे आवत ।
ठीक कहतारS ए बचवा, ई नावा जुग के हवा बा, बहुते कुछ नीमन हो गइल । सुख सुविधा घरे घरे हो गइल । नींक डाकडर बैद हो गइलन। खरबिरवा दवाई खत्मे हो गइल । खाए पिए पहिने के नींक- नींक भेंटाए लागल । लेकिन, अब बात केहू के केहू सहत नइखे । छोटी छोटी बात पर बात के बतंगड़ बन जाता । सास ससुर अपना पतोह के बहुत कुछ कहल आ बतावल चाहतारें बाकी ई पतोह त ओह लोग के कवनो मोका देते नइखीसँ । अब बूढ़- बूढ़ी के दूर बइठ के टुकुर-टुकुर ताकल मजबूरी बन गइल बा ।

सहनशक्ति के कमी, तुनकमिजाजी आ तालमेल के कमी के चलते आज बहुते बियाह जइसन अटूट बन्धन भी टूट जाता । हर मामिला में लइकिए के दोष नइखे । कुछ निर्दयी हत्यार नशाखोर मानसिक रोगी भी बाड़न जेकरा साथे जीवन काटल आसान ना, नामुमकिन बा। ओइसन रिश्तन से मुक्ति जरूरी बा । लेकिन हर रिश्ता के मोका देवे के चाहीं। बिशेषकर जब बालबच्चा होखे त । ई कइगो जिनिगी के सवाल बा । हर रिश्ता जरुरी बा परिवार के खुशहाल राखे खातिर ।

एतना कहि के बड़की माई अम्मा के संगे परामपत काका के घर की ओर चलि देहलस । हमरा मन में कइगो सवाल तिन्ना होके खाड़ होखे के कोशिश में लागल रहसँ ।

✍तारकेश्वर राय “तारक”
उप-सम्पादक
सिरिजन भोजपुरी ई-पत्रिका