आँखि में खीझ जियादा लागे

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गजल

आँखि में खीझ जियादा लागे।
बज्र ढावे प अमादा लागे।

रंज काहे ह, समुझ का इचिको?
आज ना नेक इरादा लागे।

नजर के घात चले तिरछौंहे,
चाल अदबद के पियादा लागे।

लूटि के खोर कइल घर सेही,
ओढ़ले साध – लबादा लागे।

ऊपरे से त दिखस पाथर अस,
भीतरे ओछ बुरादा लागे।

अब कवन बात भरोसा लायक,
बात सब नून सवादा लागे।

झंझ आँखिन में बढ़त बा रोजो,
घरजरुन केरि लकड़दा’ लागे।

जौन बतिया त रहे तर ढाँकल,
तल प उभरे त कुशादा लागे।

[कुशादा= खुलल, फैलल]

दिनेश पाण्डेय,
पटना।