कुक्रांद

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चौंकि गइनी़ नू ई नाम सुनिके? देश में बनेवाला हजारन दलन में ई एगो दल के नाम ह, जवन अबे नये बनल ह। ओइसे त ई दल बने आ बनावे के विचार कई साल से चलत रहल ह, लेकिन कई अड़चनन का बावजूद ई रजिस्टर्ड पाटी होइए गइल बा।
भइल ई कि कुछदिन पहिले फुलेसर आ भुवर के कुक्कूर आपस में लड़ि गइले सन। समय बीतल, ओ कुक्कूरन में इयारी हो गइल, लेकिन फुलेसर आ भुवर में लाठी- लउर निकलि गइल आ आजु ले बोलोचाल बन बा। उहे कुक्कूरा रोज मिले लगलेसँ आ आपन दुखम-सुखम बतिआवत पूरा कुक्कूर समाज की दशा आ दिशा पर सोचे लगलेसँ, ओही तरे जइसे दू अदिमी के भेंट होखे त आपन नून-तेल के परशानी भुलाके मोदी आ राहुल की चिन्ता में मरे लागेला। हँ, त फुलेसर के कुक्कूरा कहलसि- ‘भाई जी, पता ना हमनीं के बिरादरी कहिया एकजुट होई?’
भुवर के कुक्कूरा जवाब दिहलसि-‘रउरा त हमरा मुँह के बात छीनि लिहनीं। हमहूँ ईहे सोचत रहनीं हँ। जले अपनी जाति के पाटी ना होई, तले कल्यान नइखे। ए अपना-पराया, जाति-पाति, धरम-अधरम आ लूट-खसोट का जुग में, जहाँ खेंखर, बिलार, सियार, गाय, बैल, सुअर, गदहा आ चिरई-चुरूंग सबके आपन संगठन बा, का कुक्कूर जाति के कवनो संगठन ना होखे के चाहीं?’ आ तनी कनखी मारत कहलसि कि पाटी बनी, तबे नू हमनियो का कुछ भेंटाई।’
‘जरूर होखे के चाहीं। लेकिन ई प्रयास करी के? प्रयासो करी त होई कि ना, इहो बड़हन बाति बा, आखिर हमनीं के जतियो त कुक्कूरे ह। ए से हमरे आ रउरा मेहनत करे के परी’- फुलेसर के कुक्कूर कहलसि।
दुनू कुक्कूर संगठन खड़ा करे खातिर लगलें गाँवा-गाँई घुमे। पहिले त जहाँ जासँ, उहाँ के कुक्कूर अपना अधिकार क्षेत्र में दखल बुझिके झँउझियात, गुरनात आ भोंकत ओ लोगके काटत- पटकत खून निकाल दसँ। लेकिन, एहू कुक्कूरन का नेतागिरी के चस्का लागि गइल रहे। बुझि गइल रहलेसँ कि जवन नेता गारी ना सुने आ लात ना खा, ऊ कइसन नेता? धीरे- धीरे जाति- बिरादरी के कुक्कूर चिन्हे लगलेसँ आ कुछ मानो सम्मान मिले लागल। संगठन खड़ा करे के विचार चारू ओर फइले लागल आ समर्थको मिले लगलें। जइसे पाटी का नाम पर अमूमन मिल जालें।
आखिर कातिक का महीना में बूढ़ियाबारी में सब कुक्कूरन के जुटान भइल। पूरा देश से जुटल कुक्कूर ऊपर मूड़ी उठाके एक्के सुरे भों..ओं….बोललें आ कारवाही आगे बढ़ल। सबसे मेहनती आ समझदार मानिके फुलेसर का कुक्कूर के कहाइल कि इहाँ एकाठा कइला के का उदेश बा? बतावल जा।
फुलेसर के कुक्कूर ओ बेरा अपना के बाघ समझिके खड़ा भइल। आगे के दुनू गोड़ उठाके एकाठा कइलसि, जइसे सबके गोड़ लागत होखे। सामने बइठल सब कुक्कूर ओही तरे गोड़ उठाके जबाब दिहलेसँ। अब फुलेसर के कुक्कूर बोलल चालू कइलसि- ‘दूर- दूर गाँवन आ शहरन से आइल हमार भाई- भउजाई, काका- पितिया, लरिका- सेयान आ बूढ़- जवान क्रांतिकारी कुक्कूर सब- ए समय ए देश में कुक्कूर जाति के जवन हालत बा, ओ में जिअल मोहाल हो गइल बा। कुक्कूर जाति के बात सुनेवाला कवनो दल नइखे लउकत। हमनीं के स्वाभाविक भोजन मुअला मवेशी का माँसो पर दूसर- दूसर लोग कब्जा क ले ले बा। साँच बात त ई बा कि मवेशी हइए नइखे भा बड़लो बाड़न त हमनीं का पहुँच से बहुत दूर कटातारें, जहाँ हमनीं का जाए में जान के खतरा बा। केहू का घर में जाके हाँड़ी से कुछ चोरावलो कठिन हो गइल बा। दुआर पर पहुँचते लोग दुरदुरावे लागता आ अउर ना त ऊपर से लाठी-डंटा चला देता। पहिले लोग हमनीं की जाति के कवरा दे देत रहल ह, अब अन्न बचवला का नारा का चलते उहो बन हो गइल। जाड़ा- पाला में, आन्ही- गरमी में रतजगा क के गाँवन में अनचिन्हार का घुसला पर अपनी जबरदस्त आवाज में भोंक- भोंक के सबके आगाह करेवाला के लोग एही खातिर थूर देता कि रातभर अनासे जगवले रहता। चाय- पकौड़ा की दूकान पर गइले दूकानदार गरम पानी फेंक देता। जहाँ कहीं हमनीं के संख्या बढ़ता, नगरपालिका के लोग पकड़िके अइसना जगह छोड़ता कि मति कहीं। अउर ना त हमनीं के नसबन्दी क दिहल जाता। केहू हमनीं के सुननिहार नइखे। सरकार कान में तेल डालिके बइठल बिया। कविलोग हमनीं के नाम ध ध के कविता लिखता आ हमनीं के अदिमी का बरोबर खड़ा करता। ना पतियार होखे त सुनीं सभे एगो नामी विदवान, चिंतक आ कवि दिनेश पाण्डेय जी के कुछ दोहा-
कटहा कूकुर पीठ प, साँसत परल परान।
गिरि लिवार उठनीं जबे, धइलसि भागि सिवान।

ई कुतवा सिधवा लगल, बइठल बीचे मोड़़।
चारि डेग आगे बढ़त, अचके धइलसि गोड़।

एक जने कहलें भगत, इहे जोगवा साधि।
होड़ मचल कुत्तन मधे, सहता भइल समाधि।

सभे जनावर लाज से, तोपे गोपन अंग।
टघरत चलत निचिंत ई, कइले पोंछ उतंग।

दुम अलगवले देखिके, भल तटस्थ धरि मौन।
उरुझी कूकुर संग में, कूकुर होखी तौन।

अब बताईं सभे ई बेइज्जती बरदास करे लायक बा? मने, केतना गिनावल जा। केहू हमनीं खातिर सोचत नइखे। अइसन हालत में जरूरी बा कि हमनीं के आपन पाटी आ संगठन होखे, जवना माध्यम से आपन बात पुरजोर तरीका से उठावल जा। हम जानतानीं कि ई कातिक महीना हमनीं के ह, ओहू से ऊपर संजोग बनल बा कि भाई सब एकाठा बा त ए महीना में कुछ त्याग क के आपन पाटी बनाइए लिहल जा।’ ए तरे कुछ झूठ, कुछ साँच बोलत सबके भरमा दिहलसि।
सब कुक्कूर जोरदार ताली बजवलेसँ आ फुलेसर का कुक्कूर के जोश बढ़ावत कहलेसँ कि जरूर बनो, जरूर बनो।
भुवर के कुक्कूर ठाढ़ भइलसि आ कहलसि कि रउरा सबके समरथन आ सहजोग के कुक्कूर बिरादरी जिनिगी भर इयाद राखी। रउरा सबका अति उत्साह से उत्साहित होके आजुए दल के नेंव दिआ जाता। हमनीं की पाटी के नाम “कुक्कूर क्रांति दल” रही। जइसे सब पाटी अपना नाम के छोट क के कहेला, ओहीं तरे एहू पाटी के छोटा नाम “कुक्रांद” रही। आज से सब कुक्कूर जहाँ मन करी, जइहें। जेकरा आगे के खएका छिने के होई, छिनिहें। केहू का जगि-परोजन में बिना बोलावल जा के सबसे पहिले खइहें। जेकरा के मन करी, कटिहें, भले ऊ दवा बिना मरि जासु। हमनीं का ए क्रियाकलाप पर केहू कवनो तरे से भुलाइयो के हमनीं का खिलाफ बोलियो दी त “कुक्रांद” ओकर डटके विरोध करी आ जरूरत पड़ी त ओकरा के चोटिया के काटे खातिर पूरा पाटी एकेसाथ लागि जाई।
घनघोर ताली से भुवर का कुक्कूर के भाषण के स्वागत भइल। सचहूँ ओही दिने से “कुक्रांद” का डरे बड़े- बड़े बाघ लो के पाटी पोंछि सुटुका लिहले बा।

✍ संगीत सुभाष
मुसहरी, गोपालगंज।
पिन- 841426
लेख में प्रयोग भइल सब दोहा- दिनेश पाण्डेय जी (पटना) के रचल ह।