ई साँच बा कि समय के साथ सोच शरीर आ आसपास के आमखास कुल्हिए कुछ ना कुछ बदलि जाला । ई बदलाव देखि के जिनिगी प्रभावित त होखबे करेले । देखीं ना, पिछला कुछसालन में हमनीं के समाज खूबे बदलल बा। बदलाव के बेयार से शहर पर भार बढ़ल त ऊ गाँव की ओर लपकल। पहिले त सिवान खेत बघार के घोंटलस आ आगेमुँहे बढ़े के काम अबहियो चालुए बा।
गाँव शहर भइल त माहौल बदलल आ माहौल के बदलाव से अदिमी के सोचसमझ बदल गइल, धन, ज्ञान, जजात, पइसा- रुपया भी बढ़ल । बदलाव के बहाव से रहन बदलल, रुचि बदलल, खानपान, पहिनावा, अपनापन, सौहाद्र, समाजिक समरसता कुल्हिए बदलल ।
अपना आँखिए के सोझा घर परिवार दुनो के बदलत देखनीं। देखीं ना, विज्ञापन हेतना कबो अखबार के अंग ना रहत रहे । ना त पहिला पेज पर एक्के ढेर जगह मिलत रहे । दुसरा पेज पर आ एकरा बादवाला पन्ना ही बिज्ञापन खातिर सुनिश्चित रहे। समय बदलल। जेतने बड़ अखबार, ओतने बिज्ञापन, पहिलका दू- तीन पेज पर बिज्ञापन के ही राज बा। ओहूमें सबसे अधिका बिज्ञापन घर के लउकत बा । लेकिन घरो खरीदबिक्री के चीझ हो सकत बा ई बात हमनीं नीयन अदिमी, जेकर जड़ गाँव से जुड़ल बा के सोच के परे रहे आ आजुवो बा।
डीह के मतलब होत रहे पुश्त दर पुश्त चले वाला चीझ ।ओ के दायें-बायें, ऊपर-नीचे,आगा-पाछा फइलावल जात रहे, मरम्मत, रंगरोगन होत रहे, उहो जरूरत के पड़ले। कबो बर- बँटवारा भइला पर भा परिवार के बढ़ला के चलते एगो नावा जमीन के टुकड़ा के इंतजाम क के घर बना लिहल जात रहे।
लेकिन, कपड़ा आ जूता नियन घर पसन करे के बदले के रिवाज नावा बा। जवन हमनीं के बीस- पचीस साल से ही ढेर देखे के मिलता। बहुमंजिला इमारत में फ़्लैट में रहेवाला समाज के चारदीवारी भा अड़ोस पड़ोस से कवनो खास ना त लगाव बा ना आत्मीयता । नावा नींक लोकेशन पर बड़हन फ्लैट मिलते चट से पुरनका बेंचे में कवनो दुविधा नजर नइखे आवत। घर से खट्ट मीठ इयाद जुड़ल रहेला। ओकर एहसास मात्र ही खत्म हो गइल बा। कवनो लगाव ना, कवनो बन्धन ना । इहे हाल परिवार के बा। पिछला पचास साल में क्रांतिकारी परिवर्तन भइल बा एकरा ढाँचा में, सोच में, समर्पण में।
हमरा इयाद बा आपन बचपन । जब सबका एक्के में रहे के रिवाज रहे। आपन डफली अपने बजावे के चलन ना रहे। बड़का बाबू, बड़की माई, चाचा, फुआ, चाची, आजी, बाबा लोग ही हमनीं के माने जाने। खर्चा पानी देव। देख भाल करे। आपन लइका- लइकी के खुदे खेलावे पियार- दुलार करे के नींक ना मानल जात रहे। हम ई नइखीं कहत कि ऊ नींक रहे । लेकिन, परिवार के अपनापन के डोर से बान्हे में भूमिका त निभवते रहे।
अबहियो जब हम अपना पुरनिया लोग के देखिला त हेतना बदलाव के बादो एहनलोग के बुनियादी मूल्य ज्यों के त्यों बा । कहे के मतलब अलगा रहीं, खाईं- कमाई। लेकिन, कुछ समय जरूर निकालीं अपना रिश्तन के धोवे- पोंछे, चमकावे खातिर । चाहे बहाना परब तेव्हार, जन्मदिन, शादी के, सालगिरह भा अउरी कवनो खुशी के मोका । मिलीं- जुलीं, हँसीं- गाईं, दुख तकलीफ में सहायता के हाथ जरूर बढाईं। मुसीबत में कान्ह से कान्ह मिलाईं । राउर कुल्हिए मेहनत, प्रयास, रचनात्मकता, कमाई, सोचसमझ के अंतिम उद्देश्य अपना घर के समृद्ध अउर परिवार के प्रसन्न राखे के ही बा न ?
लेकिन टूटत छिटात परिवार मतभिन्नता अउरी हम श्रेष्ठ, हमार श्रेष्ट के परिपाटी जबरी नीचे रसातल में ले के जा रहल बा परिवारिक ताना बाना के। रहन देख के लागत बा कि
ऊ दिन गइल, अब नइखे लवट के आवे के। पुरखन के सीख- संगठन में शक्ति होला के गाँठ बाँध के एक्के बचा के रखला के जरूरत बा। बाकी राउर मरजी ।
✍️ तारकेश्वर राय “तारक”
उप-सम्पादक
सिरिजन भोजपुरी ई-पत्रिका