लरछुत

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साँच पूछीं त ई ‘लरछुत’ चमोकन अस कवनों चीज ह, कल्हुए से अइसन चिपकल कि जाने नइखे छोड़त। एतना त तय बा कि ई यौगिक शब्द भा कहीं सामासिक शब्द ह। एमें ‘लर’ आ ‘छुत’ के मेल बा। एह से अइसन कवनो ‘विकार’ नइखे पैदा भइल जवना प बिसेस ध्यान दिहल जाव।
‘लर’ के स्रोत संस्कृत के ‘यष्टि’ ह। यष्टि के कइयक अर्थ में से दूगो हमनीं के काम के बा- एक लाठी के अर्थ में दोसरका कड़ी, श्रृंखला भा कहीं क्रमबद्धता के अर्थ में। ‘यष्टि’ में ध्वन्यात्मक बदलाव हे तरे’ भइल,
यष्टि > लट्ठि > लाठी। शब्द कवना करे भाँज मार दिहें ई कहल थोड़ मोसकिल बा। यष्टि के क्रमबद्धता परक अर्थ में ध्वन्यात्मक परिवर्तन अउरे तरे भइल, यष्टि > लट्ठि > लड़ी। ई लड़ी भोजपुरी में ‘वर्णड़रलयोर्ऽभेद’ के असर से ‘लरी’ भा ‘लर’ के सरूप में मौजूद बा।
लड़/लर के एगो दोसरो सोत बा ‘रण’। ई ‘रण’ ‘लड़(ल)’ क्रिया के जन्मदाता ह- र > ल भ गइल, ण > ड़। लड़े के अर्थ से त सभे वाकिफ होई आजु-काल्हु के बहुते महत्वपूर्ण क्रिया ह, एकरा बेगर कवनो काम संभव नइखे। एहू शब्द के ड़ लरबरा जाला- ‘लड़’ के बजाय ‘र’। देखल जाव-
“पूत कपूत कुलच्छन नारि
लराक परोसि लजायन सारो।”
अब आइँजा लरछुत के ‘छुत’ प। छूना (छूअल) क्रिया के मूल संस्कृत के ‘स्पर्श’ ह। एह ‘स्पर्श’ के एक दिशा ‘परस’ का ओरि गइल दोसर ‘छूअ’ का ओरि, छूत एकरे से बनल शब्द ह जवन स्पर्श, संसर्ग, छुआई, अस्पृश्य वस्तु के संसर्ग, अपवित्र वस्तु छूए से दोष, भूत परेत के काल्पनिक असर आदि अर्थ के बोधक ह।
अब इन्ह दूनो शब्दन के जोग से बनल ‘लरछुत’ प बिचार कइल जाव त नीचे के अर्थ परगट होई-
१. संसर्ग के लरी। संक्रमण श्रृंखला। ऊ हर पूतिकर
चीज जवन स्पर्श से संक्रमित होत होखे।
२. जहरीला साँप भा पोआ के छू जाए से पैदा
बिखबिकार के कारण ओकरो के लरछुत मानल
जाला।
३. जेकरा में ठेकले लड़ाई के आशंका होखे उहो
लरछूते हवें। एह लड़/लर से अउ शब्द बाड़न
जेकरा देखले बात साफ होई – लड़ा/लराकिन,
लड़बक= जुबान से भिड़ जाएवाला, लड़धूधुक=
झगड़ालू मूर्ख, लड़वैया आदि। इतिश्री।

✍️ दिनेश पाण्डेय
पटना।