बथुआ

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बथुआ

फुलेसर उदास, गुमसुम आ पता ना का सोचत दुआर पर बइठल रहलें, लागे जइसे कवनो रतन भुला गइल होखे। ओही बीचे हमेशा लेखाँ अपनी मस्त चाल में चलत भुवर चहुँपलें। फुलेसर के उदास देखिके उनुका मन में किसिम- किसिम के संशा उठे लागल। मनहीं मन सोचलें कि बुझाता भाई के कवनो बहुते प्रिय चीज भुला गइल बा, तबे एतना चिन्ता में बाडें। कई तरह की अनहोनी के अन्दाज लगावत फुलेसर से पूछलें-‘का हो गइल, ए भाई? काहें एतना उदास आ चिन्तित बाड़S?’

संगीत सुभाष

फुलेसर जइसे अंघी से जगलें आ थाकल आवाज में कहलें-‘बइठS भुवर। कब आके ठाढ़ हो गइल ह, हम त जनबे ना कइनीं हँ?’
‘अबे अइनीं हँ। तू बतावS, का सोचत रहलS ह? एतना ना सोचे के। हमरा देखे त सब त ठीके बा। गेहूँ के फसिलियो ठीक बा। लरिका कमाते बाड़े सन। कवना बात के एतना चिन्ता करत बाड़S? चिन्ता रोग नू ह हो, फुलेसर भाई। उठS, हाथ मुँह धोवS आ पनपियाव क लS।’-भुवर कहलें।
‘अरे भुवर! अइसन कवनो बात नइखे। हम त बथुआ के साग का बारे में सोचत रहनीं हँ।’- फुलेसर कहलें।
‘बै मरदे, त इहे काहें नइखS कहत रहलS ह कि तहरा बथुआ के साग खाए के मन कइले बा। बथुआ का साग खातिर हई उदासी? तहरा परिवार का लोग का नइखे पार लागत त हमहीं केहू से खोंटवा के साँझि खान भेजि देब, खा लिहS।’- भुवर कहलें।
सुनते फुलेसर कहलें कि कहाँ से खोंटवइबS? कवना खेत में बथुआ बा?
‘कवनो खेत से खोंटा जाई हो। ए दिन में त सब खेतन में बथुआ होला।’- भुवर कहलें।
‘इहे त हमहूँ सोचत रहनीं हँ कि ए जाड़ में सब खेतन में बथुआ होला। कवनो खेत से खोंटिके आ जाई। लेकिन, काल्हि बाजारे गइल रहनीं त देखनीं कि पच्चीस रुपया किलो बथुआ के साग बिकाता। हम बेंचेवाला से पूछनीं कि बथुआ आ हेतना महंगा? त ऊ कहलसि कि बथुआ मिलते कहाँ बा? तब हम अपनो खेत में गइनीं आ धेयान से देखनीं, कहीं एको थान ना लउकल। तहरो खेत में देखनीं, ओहू में उहे हाल रहे। केहुए का कवनो खेतन में बथुआ नइखे।’- फुलेसर बतवलें।
‘नइखे त का हो गइल? दूसर साग खाइल जाई। नोनी, करमी, गड़नी, खेसारी, लउकी के टूसा, पोइ, पटुआ, सनई, चना, पालक, मटर, झुनखुन, गदपुरना, केरा के फूल(गोंफा), कुसुम, बेसारी, कोंहड़ा के टूसा, गनहरी, अरूई के पतई आ अउर बहुत कुछ बा जवना के साग खाइल जाला आ खाइल जा सकेला। ना मिली बथुआ त ना मिली। खाली बथुए के त साग ना होला।’- भुवर एकसँसिए सब सुना दिहलें।
फुलेसर पूछलें- ‘खेसारी कहीं लउकता का? खेसारी त कहिअने बिला गइल आ साँच बात त ई कि भरम में परिके हमनिए बिलवा दिहनीं जा।’
‘चलS, खेसारी आ बथुआ नइखे त नइखे। दूसर कवन साग खाए के मन बा?- भुवर पूछलें।
फुलेसर कहलें-‘से बात नइखे भुवर। खेत में बहुत खोजला का बाद एक थान बथुआ मिलुवे। ऊ बथुआ अपना जाति-जमाति खातिर छ-छ पाँती रोवत रहुवे। ऊ जवन कहुवे, हमनीं के आँखि खोलि देबेवाला बा। कहत रहुवे कि जाड़ का दिन में गाँव का लोग खातिर साग आ सबसे ऊपर हम एगो उपहार से कम ना रहनीं हँ जा। लोग हमनीं के पुरहर लाभो लेत रहल ह। पूरा जाड़ साग का संगे भात खा के दाल के बचत क लेत रहल ह लो। बाकी, जिआदे फसिल के लालसा हमनीं जइसन मौसमी सागन का माँथे बज्र गिरा दिहले बा। लोग आवता आ आपन खेत देखिके खुशी से कहता कि कहीं एकहूँ खर-पतवार नइखे। लोग कहता कि चार-पाँच बरिस पहिले खर-पतवार जरावेवाली दवा छिटले रहनीं, अब एको खर ना उपजी। अगर दू बरिस अउरी छींट देब त ई झंझट हरमेशा खातिर ओरा- बिला जाई। ओ लोग के बात सुनिके हमरा झरझर लोर गिरे लागता ई सोचिके कि हमनीं इहाँ से ओराएवाला बानीं। साँच पूछऽ त हमरो ठकेया मार दिहुवे। सचहूँ, हमनीं का बोवला से कटला ले तरह-तरह के खाद त पहिलहूँ डालत रहनीं हँ जा, लेकिन फसल के खर-पतवार खातिर सोहनी करत रहनीं हँ जा। जवना से माँटी ऊपर-नीचे हो जात रहल ह, दू थान का बीच में जगह बनले फसिल का बढ़िया हवा मिलि जात रहल ह। सोहनी के घास पशु खाके अघा जात रहले हँ सन। अब तो बोवहीं का बेरा किसिम- किसिम के खर मुआवेवाली दवा डाल देतानीं जा, बिना ई सोचले कि आगे चलिके एकर असर का होई?’
फुलेसर कहते चलि गइलें- ‘बथुआ के दरद सुनिके मन उदास हो गइल ह। अतना नीमन हर तरह से उपयोगी बथुआ अब हमनीं का खेतन से ओरा गइल। हमरा त आपन गलती बड़ा कचोटता। आपनो विचार बतावऽ, भुवर।’
भुवर टुकुर-टुकुर ताकत रहि गइलें।

✍संगीत सुभाष,
मुसहरी, गोपालगंज।