सतहतर – अठहतर , चाहे दू साल आगे-पीछे ।
पछेया हवा शहर से बहत – बहत आस्ते – आस्ते गाँव की ओर झकोरा मारल सुरू क देले रहे। डाॅग काॅलर , बाॅबी काॅलर , बेल बाटम , हिप्पी कट केस के साथे लेडी घड़ी , पर्स , स्लैक्स , नाइटी, अन्डर गार्मेन्ट्स , हाई हील अइसन चीझु गते – गते गाँव में घर करत रहे।
कहे के मतलब ई कि दतुवन के जगहा टूथ ब्रश , सरबत के जगहा कोका कोला , जरबनवाला पाँएट के जगहा जंघिया•••••••• लेबे सुरू क देले रहे। बंबइया फिल्म के प्रभाव ई परल कि ” सुनत बाड़ू हो ” ना जाने कब बदल के ” सुन रही हो ” हो गइल। रसे – रसे हमनी के सभ रास आवे लागल । अचंभा तऽ तब भइल जब रातोरात माई – बाबूजी , मम्मी – पापा हो गइलनि। जब हतना चीझु हनाहन बदलत होखे त एकर माने का ? माने ई कि पछेया के जवन झकोरा बहल रहे अब ऊ आन्ही के रूप ध लेले रहे । बदलाव में कंपटीशन हो गइल , अतना कि घीव – रोटी , बटर – ब्रेड हो गइल , भुजुना – चबेनी , चाऊ -मैगी , संघतिया बदलि के फ्रेंड हो गइल।
देखते -देखत आजु ई पछेया बवन्डर बनि गइल । कतने फेंड़ – रूख उखाड़ के फेंक देलक। बिनास के येह जतरा में ” सुनत बाड़ू हो ” भाया “सुन रही हो ” हलो डार्लिंग तक चहुँपल । ” हाफ पैंट बरास्ते जंघिया पैंटी तक ” , ” दण्ड – परनाम , गुड -माॅर्निंग के रास्ता हाय हेलो ” तक चहुँपल।
अब सवाल ई बा कि येह पूरा बदलाव के बाहक के रहल , के – के देखल, के – के खाइल , के – के पचावल? आजु फुलेसर के नाती उलटी करत बा आ फुलेसर के महकत बा , काहें ? आखिर अइसन चीझु फुलेसर के नाती के हाथे कइसे लागल ? का एकरा के लेवे आवे में हमनी सँ दोसी नइखीं? हमरा खूब पता बा , कि अब फुलेसर कहिहन , सभ ” समय के खेल बा ” , उनुकर बेटा कही , ” बदलाव के रोकल ना जा सके।”
त ठीके बा राउर सुकर्म के कमाई खा के नाती नातिन , तऽ उलटी करते बा आवेवाली संतति रउआ के घीव के दीया देखाई।
✍️अमरेन्द्र कुमार सिंह,
उप संपादक , सिरिजन,
आरा, भोजपुर, बिहार।