वज़्न- 2122 1212 22
लोर मथि के रतन निकारे के।
आँखि अइसन कबो न मारे के।
आप रोशन जहान रोशन बा,
ना त सिक्का चली अन्हारे के।
नीर देखत लवटि गइल सावन,
और अब का बचल ह ढारे के?
मन के अँगना बहारि के राखीं,
बेवजह कींच नाहिं डारे के।
ढाँकि लीं तन अपन एही खातिर,
पाग केहुए के ना उतारे के।
पढ़ि त लीं फारि के फें’कबि भलहीं,
खत ना’ आइल ह बस निहारे के।
शोर ‘संगीत’ हो गइल जबसे,
दर्द बढ़ियात बा कपारे के।
✍️ संगीत सुभाष,
प्रधान सम्पादक, #सिरिजन, भोजपुरी पत्रिका।
मुसेहरी बाजार, गोपालगंज।
#जय_भोजपुरी_जय_भोजपुरिया