बिटोरन अपना इस्कुल के तेज बिदारथी रहन आ गाँवों में उनुकर दिमाग के लोग परतोख देत रहे । उनुकर लंगोटिया इयार बेकहल के ” यथा नाम तथा गुन ” के कहाउत चरितारथ होत रहे । हट्ठा-कट्ठा सरीर बाकी कलम के कमजोर रहलें । एकर मतलब ई ना कि उनुकर दिमागो कमजोर रहे , बाकी तनी उल्टा चलत रहे । एक दिन सँझवत खा ललटेन बार के बिटोरन दलानी में जसहीं पढ़े खाति बइठलन , तले बेकहल के बोली सुनाइल, ” अरे बिटोरना हेने आउ ” बहरी निकल के देखलनि त चद्दर ओढ़ के बेकहल खाड़ रहन । आव देखलन ना ताव झट से कोठरी में घुस के पुअरा के नीचे कुछ रख देलन । जाड़ा के दिन में सभके इहाँ सूते खातिर पुअरा बिछावल जात रहे । बिटोरन पूछलन ” ई का ह रे ? ” बेकहल मुँह प अंगुरी ध के बोले से मना कइलन आ कहलन कि एगो चीझ ह काल्ह ले जाइब ।
बिटोरन इयारी में दरार ना परे ए से कुछ कह ना पवलन आ चुपचाप पढ़े बइठ गइलन ।
आइ हो दादा! कवनो हमार रासन के मय चाउर चोरा लेलसन हो दादा–ई चिलाते मंदिर के पुजारी जी गाँव में हाला कइलन । उनुकर चिलाइल जब बिटोरन सुनलें त सभ कहानी समझ में आ गइल , ” ई त कलाकारी बेकहला के हऽ । ” पुअरा के नीचे हाथ लगाके देखलन त बिसवास हो गइल ।
अब त अपनो इजति के सवाल रहे ए से कुछ ना बोललें, आपन पढ़ाई करे लगलन ।
बगल में बाबूजी बइठल- बइठल बटोरन के देखत रहलन आ एक ब एक ” तड़ाक ! ” चमेटा जर देलन । कबहीं से देखतानी तोर पढ़े में मन नइखे लागत। आधा घंटा हो गइल तोरा पन्ना पलटला। का पढ़तारे ? अब बटोरन का बतावस कि काहें मन नइखे लागत पढ़े में ।
बिहान भइला जब इस्कुल से पढ़के बिटोरन अइलन त पहिलका नजर कोठारी के पुअरा प परल । कोठारी साफ क के गोबरी भइल रहे । अब बिटोरन के काटीं त खून ना ।
मुँह लटकवले बस्ता रखके, घर में बइठ गइलन । माई खाए के ले अइली त बिटोरन बक्का फार के रोवे लगलन । माई कारन पुछली तऽ एके दम सभ उगिल देलन । बदनामी के डर से शराफत के तमगा काँपत रहे ।
ई बात बाबूजी जब सुनलन त हाथ के पैना फेंक के बेकहल के बड़ भाई से मिले चल गइलन आ उनुका से सभ बात कहलन । बेकहल के भइया कुछ ना पुछलन आ ओरहन स्वीकार क लेलन । फिर चाउर के गेठरी ले के अपने पुजारी जी के पास जा कहलन , ” ए बाबा! हइहे नू चाउर ह राउर, कवनो रहता में फेंकले रहे ।” पुजारी बाबा खाँची भ असीरबाद देलन ।
ए बेकहल तनी बँसवारी में से एगो नीमन बाती काट के ले आउ तऽ । बेकहल भाई के हुकुम बजवलन आ बँसवारी से एगो मोटहन बाती काट के आ नीमन से छील के अपना भाई के दे देलन ।
सटाक! सटाक !! सटाक !!! बिना पुछलहीं दे दना-दन । आइ हो दादा! अब ना करब , चिलाते चिलाते आँगन में चारा नियन छपिटाये लगलन । बेकहल के रोवाई सुनके टोला परोसा के लोग जुट गइल आ भाई के डाँटे लागल । एगो बड़ बुजुरुग बाबा हाथ से बाती छीनके पुछलन , का भइल ? काहें मारतारे ?
ई रात में मय बिछवना छिलबिल क देले बा गारी के मुँहें बोललन । पाड़ा लेखा हो गइल अबहीं ले एकर आदत ना गइल । बाकी असली कारन बेकहल नू जानत रहन । टोला परोसा के लोग जब हट गइल त बेकहल के डाँड़
में रसरी बान्ह के इनार में बल्टी लेखा डुबावे लगलन ।चार पाँच डूबकी के बाद जब दम फूले लागल त बहरी निकाल के खाम्हा में बान्ह देलन आ रात भर एगो पाँएट प रखलन । चार दिन तक दवा बीरो भइला के बाद पँचवा दिन से बेकहल के नाँव से बे हट गइल आ कहल हो गइलन। अब घर के काम-काज में हाथ बटावत बाड़न ।
✍️ कन्हैया प्रसाद तिवारी “रसिक”
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