” साहेब, जतना रोपेआ दिहलीं ओह में बीस परसेंट रउरे गिना लिहलीं। अब आगे के टेबुल पर गिने के परी। एह हिसाब से घर बन जाई ? ” हरिया डेराते डेरात रोपेआ लूटे के बिरोध में स्वर ऊँचा कइलस ।
” जहिया कागद से नाम घसकावत रहीं, तहिया घिघियात रहस आ आज हमरे से सवाल रे? बाह हरिया बाह, का जमाना आ गइल ….?”
साहेब कलम दोसर तरे घुमावे के अंदाज में बोललन
आ फिनु बात जन बढे़ मोलायम बुद्धि से सरिया देलन।
” हें हें हें, कुछ अपना ओर से मिलाके बना लिहे रे। ”
समय के मारल आदमी उठी कहाँ से? हरिया घर ढहलस त देवाल सोझ करे में, गोतिया के मिलावे में बरबाद हो गइल आ जब बात मुखिया तक चहुँपल त मुखिया के मिलावे में साफ हो गइल। केहू के नजर से बच ना सकल हरिया के सपना। हरिया आज पोलथिन के ढाबा में बसर करत बा। घामो दाबत बा, त सीतियो नइखे छोड़त।
विद्या शंकर विद्यार्थी