घटना लगभग चालीस बरिस पुरान ह। फुलेसर आ उनुके लंगोटिया इयार बुधन का देउरिया नैना टाकीज में जा के बाबी फिलिम देखे के मन कइलसि। ई बुझीं कि नशा सवार हो गइल। दुनू जने मिलि के सोच करे लागल लोग कि कइसे देउरिया चलल जाई? घर के लोग जानि जाई त कत्तई सिनेमा देखे ना जाए दी। ए समसेआ के हल त तुरते हो गइल। बुधन कहलें कि ओहि दिन पढ़े ना चलल जाई। इसकूल का बदले देउरिया सइकिल से निकलि जाइल जाई, बारह से तीन वाला शो देखि के तनी मेहनत कइल जाई त पाँच बजे ले अपना-अपना घरे हाजिर रहल जाई। केहू ना जानि पाई कि इसकूल से ना देउरिया से आवतारेसँ।
अब समसेआ पइसा के रहे। पइसा आई कहाँ से? ओ समय एतना पइसा त पढ़गितिया लो का घर से मिले ना। पढ़े जाए का बेरा आधा घंटा रोअला-ठनला का बाद चउअन्नी मिलि जा त ओतने में पढ़गितिया लो बमबम हो जा। दू- तीन ले पइसे की बेवस्था पर बात आ के रूकि गइल रहे। एन्ने बाबी फिलिम दुनू जना के दिमाग से उतरे ना। अन्त में, एगो जोगाड़ सोचिए लिहल लो।
निरनय ई भइल कि बुधन का बखार में रहर राखल बा। रात में रहर निकाल के बेंचि दिहल जाई आ सिनेमा देखे चलि दिहल जाई। ए स्कीम से दुनू जने बड़ा गदगद रहे लो। लेकिन, आजु ले केकर सगरे सोचल भइल बा कि ए लो के होखो।
घर- परिवार, टोला- मोहल्ला के सभे सूति गइल त फुलेसर आ बुधन एकाठा भइलें। बखार का लगे चहुँपल लो। जल्दी- जल्दी बुधन अपना घर से रहर राखे के एगो बोरा आ बखार के पेहान (टोपी) उठावे खातिर एगो बरियार बाँस के टेना उठा ले अइलें। दुनू जने मिलि के बाँस का टेना की मदद से बखार के पेहान (टोपी) ऊपर उठा के चाँड़ लगा दिहल लो। अब बखार में ढुके के बेरा आइल। फुलेसर बुधन से तनी देहिगर आ बरियार रहलें। ए से अपने बाहर रहि के बुधन के सहायता क के भीतर पहुँचा दिहलें। कहलें कि जल्दी बोरा में रहर भरि कि हमके पकड़ा दे आ जल्दिए निकलि आउ। लेकिन, ओहि दिन साइत बुधन के संजोगे ठीक ना रहे। बुधन का भीतर पहुँचत कहीं कि पेहान के ऊपर उठावेवाला लागल चाँड़ अपनी जगहि से छिटिक गइल। बखार के पेहान भद्द से गिरि के अपनी पुरनकी जगहि पर आ गइल। बाहर से फुलेसर बड़ी कोरसिस कइलें कि चाँड लगा दीं। लेकिन, सगरे बल लगवला का बादो पेहान अकेले उठला मान के ना रहे। सगरे दाव फेल हो गइल त फुलेसर अपना इयार के बखारिए में फँसल छोड़ि के अपने बचे खातिर अपना घरे भागि गइलें।
ओन्ने बुधन बहुत देर ले बखार में गमाइल रहलें। बहुत देर ले बाहर से कवनो चाल ना मिलल त धीरे बोललें- ‘इयरवा! काहें नइखे पेहनवा उठावत कि हम निकलीं रे? फुलेसर उहाँ होखसु तब नू बोलसु? थोरे देर बाद बुधन का बुझा गइल कि फुलेसरा भागि गइल बा त भीतरे से पेहान उठावे के बल भर कोसिस कइलें। जिउ उकबिक हो गइल। बुझाइल कि परान निकलि जाई त लगलें बुक्का फारि के रोवे।
बुधन का बाबा का कान में रोवाई के आवाज परल। घर का लोग के हाँक लगवलें- ‘रे! हई सुनबसँ, बुधना रोवत बा का रे? सभे चारूओर बहरी खोजि लिहल। अन्त में, पता चलल कि बखार में रोवता।
बखार के पेहान हटावल गइल। बुधन निकालल गइलें। बखार में समइला के कारन जनला का बाद ऊ ना दवाई भइल कि बुधन का चले में खाली पुरुआ बहला पर दरद होला, लेकिन आजुओ ले बहुत देर ले सही- सलामत बइठि ना पावेलें।
बिहान भइला फुलेसर किहाँ ओरहन गइल। फुलेसरो बाबी त बाबी ह, दुसरो कवनो फिलिम देखला कि नाम पर थरथर काँपे लागेलें। बुझिए गइल होखबि लोगें कि काहें?
✍️संगीत सुभाष