फुलेसर किहाँ हीत आ गइलें। जर- जलपान का बाद फुलेसर पूछलें- ‘आछा, बतावल जा भोजन का बनो?’
हितऊ कहलें- ‘आरे, का अबे भोजन का झंझट में परतानीं? भोजन त अब साँझिए खान नू होई? वोइसे हमरा भोजन खातिर ढेर फेर में परला के गरज नइखे। दू लीटर बिना पानी के भँइसि के दूध अँवटवा के आधा किलो क दिहल जाई, आधा किलो परोरा के भुजिया तरकारी आ 10- 12 गो फुलुकी गरम रोटी बनि जाई, हमार भोजन हो जाई। ढेर झंझट में काहे के परबि? हम हितई- नतई जाइले त केहू भीर में ना परे, जरूर सोचीले। एसे एतने बनवा दीं, काम चला लेब।’
फुलेसर बुझि गइलें कि ई खाहीं खातिर आइल बा। पूछलें- ‘ए बाबू! ई तू का कहतार हो? घरहूँ इहे खाल$ का?’
हीत तनी सकपका गइलें आ लजाते कहलें- ‘ हँ, साँझि बेरा त इहे खाइले।’
फुलेसर- ‘आरे ए बाबू! ई त जहर ह जहर। ई खइला का बादो तू ठाढ़ बाड़$, हमरा त अचम्भे लागता। तू त जहरे खात बाड़$ ए दादा। अब भगवाने मालिक बाड़ें, तहार।’
भुवर उहवें रहलें। फुलेसर पलटि के उनुका से कहलें- ‘ ए भुवर! हऊ छान्हि पर कोंहड़ा फरल बा, तूरिके अपनी भउजाई के दे आव$। कहि दीह$ कि केहू हीत आइल बा। साँझि के कोंहड़ा के तरकारी आ मकई के रोटी बना दीहें। बड़ा भागि से हीत आवेलें। अपना घरे त जहर खाते बाड़ें, हमहूँ खिआ दीं त उचित ना होई।’
हीत लघुशंका का बहने भगलें त सुताराति ले खोजइलें। अबे लघुशंके करतारें।
#संगीत_सुभाष