काहे एतना कूदत बानीं ए चुनाव में रउआ?
बिना काम के ढहत बानीं पी के रउआ पउआ?
कब से होता धावागोड़ी, अबकी इनहीं कीहें?
केतना हाथ लगवले बानीं केतना अउरी दीहें?
रोजबनी पर बानीं कि तय कइले बानी हुंडा?
केतना लोग बा रउआ साथे लंपट, डाकू, गुंडा?
कइसन बा माहौल एम्हर के, ए चुनाव में अबकी?
मुहकुरिये भहराइल रहलें देखले रहनीं तबकी।।
ये भाई हम कथी कहीं? अबकी भी ना जितिहें।
आवे दीं परिनाम देखेम ना अपने माथा पिटिहें।।
हमरा त पइसा से मतलब जितिहें चाहे हरिहें।
जितला पर ई हमनीं खातिर, थोरे कुछऊ करिहें?
मतदाता भी भीतरे-भीतरे सब नेता से लेता।
ओकरा बाद जहाँ मन होता, ओकरे के मत देता।।
मतदाता के अब बिकास चुनाव से पहले होई।
जितला पर ना भेंट होई, ना झाँकी पारी कोई।।
मतदाता बा ओतने दोसी, जेतना दोसी नेता।
ले के पइसा जात धरम पर ऊ आपन मत देता।।
✍️अखिलेश्वर मिश्र
बेतिया-845438