भाई

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भाई अब्बर होला, दुब्बर होला, लूल्ह होला, लंगड़ होला, आन्हर होला भा कमबुद्धि होला। लेकिन, भाई भाई होला। भाई दहिन बाँहि ह, अन्हरिया में दीया ह, घाम- बरखा में छाता ह, बुढ़ारी में लाठी ह। ओहू में भाई जो छोट होखे, जेकरा के बड़ भाई कोरा उठा के घुमवले होखे, अंगुरी धरा के चलवले होखे, अपने साथे इसकूल में पढ़े लिआ गइल होखे त ओ भाई पर सबकुछ लुटा देबे के मन करेला।
फुलेसर आ भुवर दुनु भाई का आपसी प्रेम के चरचा पूरा जवार करे। लरिकाइएँ से दुनु जने दिनभर में कइबेर आपुस में झगरा- तकरार का बादो एक दूसरा से थोरहूँ देर अलग रहे के सोचबो ना करे लो। जवान भइल लो त बाबूजी दुनू जने के उचित समय पर बिआह क दिहलें। दुनू भाई आ दुनुजन की मलिकाइनो लो में ओतने प्रेम रहे, जेतना फुलेसर आ भुवर में। दुनु देयादिन के आपुस में बेवहार सगी बहिन जइसन रहे। लेकिन बालबच्चा का मामला में फुलेसर के भागि साथ दिहलसि ऊ दू बेटा के बाप बनि गइलें। ए ममिला में भुवर के भागि तनी धोखा दे दिहलसि। बिआह भइला का कई साल बाद ले कवनो बालबच्चा ना भइल त शहर का बढ़िया डाकदर से दवाई करावल शुरू भइल। दवाई काम क गइल। समय पर भुवर बो एगो बेटी के जनम दिहली। बड़ी खुशी मनावल गइल। सभे कहल कि पहिले- पहिल लछिमी अइली, अगिली बेर कन्हइया जी अइहें। कन्हइया जी का इन्तजार में भुवर का चार गो बेटी हो गइली। दुनु बेकति राइ क के नसबन्दी करावे जाए के बिचार करे लागल लो। लेकिन फुलेसर मना क दिहलें। कहलें- ‘नसबंदी ना होई। कतनो बेटी होइहें सन, सगरिन के पढ़ाई- लिखाई आ बिआह- शादी हम करबि, हमार दुनु लरिका कमा के करिहें सन। तू चिन्ता जनि करS, भुवर।’ भुवर बाति मानि गइलें। कुछदिन बाद सचहूँ भुवर बो कन्हइया जी के जनम दिहली। घरहीं ना, पूरा गाँव में खुशी आ गइल। धूमधाम से छठियार मनल। गाँव भर के लोग के भोजन करावल गइल। लरिका की किलकारी से घर-आंगन गुलजार हो गइल।

समय सरकत गइल। फुलेसर के दुनु लरिका पढ़ि- लिखि के बढ़िया नोकरी करे लागल लो। ओहू लोग के बिआह हो गइल। भुवर का देर से संतान भइला गुने लइका- लइकी अबे बिआह जोग ना भइल रहली सन। फुलेसर आ भुवर के उमिरयो अब ढलान की ओर जाए लागल रहे।

होली में फुलेसर के दुनु लरिका बहरा से आइल लोग। रूपिया कमइलहीं रहे लोग। नया घर बनवावे के बिचार भइल। फुलेसर आ भुवर दुनु भाई बड़ा खुश भइल लो कि नया घर बनी। लेकिन, ई का? बिहान भइला फुलेसर के दुनु लरिका उनुका से पूछल लोग कि घर कइसे बनी? चाचा के केने हिस्सा रही? रउरा उनुका के एक ओर बाँटि के दे दीं कि हमनीं का अपना हिस्सा में आपन घर बनवाईं जा।
फुलेसर का ई सुनते चवन्हा आवे लागल। कुछुवो कहल- सुनल ना बने। हिम्मति बान्हि के कहलें कि ए बाबू! ऊ दुसर हउवन का? हमार छोट भाई हउवन। आगि-पानी, घाम-जाड़, सुख-दुख में हरमेसा साथे रहल बाड़ें। जाने भर में हमरा ऊपर कवनो भीरि नइखन परे दिहले। आजु ले नहइला का बाद हमके हमार धोती नइखन फींचे दिहले। आजु तहन लोग दू पइसा कमाए लगल त हम उनुके अलगे क दीं? दुनियाँ का कही हो? बाबू! हमार इज्जति राखS लो। भले घर मति बनवावS लो। लेकिन हमरा जियतमे हमरा से अइसन काम मति करवावS लो। हम मरि जाइबि त जवन बुझाई करिहS लो।
फुलेसर निहोरा कइलें, जुगुति लगवलें। लेकिन, लरिका ना मनले सन। बिना कवनो लागलपेट के भुवर से कहि दिहले सन- ‘काका! हमनीं का घर बनवावे के बा। ए से जमीन बाँटल जरूरी बा। तू हेने आधा ले के रहिहS आ हेने हमनीं के घर बनी आ साँझि से रसोइयो आपन-आपन बनी।’ भुवर अपना भाई फुलेसर का ओर तकलें। फुलेसर आँखि पोंछत दुसरा ओर मुँह घुमा लिहलें। भुवर समझि गइलें कि भाई लरिकन की जिद्द का चलते कुछ बोलि नइखन पावत, अलगा के पीरा त उनहूँ का बड़ले बा। भुवर भतीजन के कइल बटवारा छाती पर पत्थल ध के मानि गइलें। आँखि से टपटप लोर गिरे लागल। कबो चारू बेटिन का ओर देखसु त कबो लरिका का ओर, जइसे सोचत होखसु कि बड़ा कुसमय बिपत्ति परल बा उमिर का आखिरी पड़ाव पर।
साँझि भइल। फुलेसर के लरिका खूब खुशी-खुशी अलगे बना के खाइल लो। भुवर मलिकाइन से कहलें कि लरिका कइसे उपास रहिहें सन? ओकनी भर के कुछ बना दS, हमरा भूखि नइखे।
सभे खा- पी के सुति गइल। ना सुते में दुआर पर बिछल अपनी- अपनी चउकी पर फुलेसर आ भुवर आ घर में भुवर के मलिकाइन रहे लो। निसबद राति के फुलेसर एगो झोरा ले के भुवर की चउकी पर जा के बइठि गइलें। धीरे-धीरे भुवर का कपार पर आपन हाथ घुमावे लगलें। अन्हरिया राति में भुवर के एकटक निहारत रहलें। फुलेसर की आँखिन से टपकत पानी भुवर की आँखिन पर गिरे लागल, जइसे दुनु आँखि के पानी एक हो जाए के चाहत रहे। भुवरो कवन सुतल रहलें? भाई के लोर टपकि के गिरल जनलें त उठि के बइठि गइलें। दुनू भाई एक दूसरा के अँकवारि में बन्हलहीं रहि गइलें। कुछदेर बाद तनी मन हलुक भइल त फुलेसर एतना धीरे से बोललें कि दुसर केहू सुनि ना पावे- ‘भुवर! अब ई सब रोकल हमरा वश के नइखे रहि गइल। नवकी पीढ़ी सब रिश्ता- नाता स्वारथ से तउलति बा। हमार लरिका तहरा के अलगा क के हमार करेजा काढ़ि लेबे चाहतारे सन। हमरी आँखिन के अँजोर हमरा से छिने चाहतारे सन। हमनीं का रात- दिन पटवन क के जवन बगइचा फरे लायक बनवनीं जा, ओ पर आरी चलावतारे सन। ऊ अपना मन के करिहें सन त हमहूँ अपना मन के करबि। हे झोरा में माई के दिहल ढेर गहना आ बाबूजी के दिहल सवा लाख रूपिया बा। एक्के ले जा के अपनी मलिकइनिया का लग ध दS। ई ससुरा जानि जइहें सन त हिस्सा लगावे लगिहेसँ। तहरा पाँच गो छोट-छोट लरिका- लरिकी बाड़ीसँ। बेरा पर काम दी।’
भुवर कहलें- ‘भाई! ई बैमानी होई। माई-बाबूजी के सामान तहरो लरिकन के हिस्सा भइल।’
फुलेसर- ‘लरिकन के ना, हमार आ तहार भइल आ हम आपन तहरा के देतानीं। ले जा के राखतारS कि गिराईं दू चटकन?’
भुवर के बोली बन्न हो गइल। झोरा ले के धीरे – धीरे जाए लगलें।
लवटि के अइलें त फुलेसर कहलें- ‘ऊ दुनू अलगा भइल बाड़ेसँ, हम नइखीं भइल। हमनीं के रसोई एक्के जगह हमार आ तहार मलिकाइन मिलि के बनाई लो।

✍संगीत सुभाष
मुसहरी बाजार,
गोपालगंज, बिहार