“रंग फगुआ के”
आइल बसन्त मनमीत बाड़े दूर सखी,
सवख जगावे पिक-मोर फगुआ के ।
सरसों पलाश रंगारंग रंगे दस दिस,
दीक देत फगुनी बयार फगुआ के ।
नैन चैन पावे नाहीं रैन दिन कबहूँ,
कब रे सनेस आवे पी के फगुआ के ।
चान के चकोर ताके सोझवे बा नैनन के,
नैनन के चाह पी-दरस फगुआ के ।
संग रंग खेलत उमंग सखी पी के निज,
केकरा संग खेलीं हम रंग फगुआ के ।
नैनन के लोर संग सानत चौकठ के धूरि,
पी के पियारी जे रहे फगुआ के ।
लाल पियर हरियर बसन्ती मधेस रंग,
“ऋषि” निज गात भरे रंग फगुआ के ।
पवन बसन्ती सनेस पी के देस ले जा,
उहवाँ का होला नाहीं रंग फगुआ के?
हृषिकेश चतुर्वेदी,
कोलकाता।