बात कुछ ना रहे तबो बोलीं।
बेवजह कान में जहर घोलीं।
ना खलेटी कहीं हवें तर-पर,
फेरु काहे जुबाँ अधर तोलीं।
लंगई बेपरद त का हरजा,
चैन से ऐन मध डहर डोलीं।
दे लुकारी जराइ छान्ही के
ओत में छुप रहीं शहर झोलीं।
शातिरी में न रावरी समता,
धीकले पाट पर चुतर पो लीं।
झूठ के पौध के तिजारत में,
नीति गेंठे चढ़े कहर मोलीं।
ए प्रबोधन प ना अमल राखबि
जा कहीं डूबि के उफर हो लीं।
दिनेश पाण्डेय,
पटना।